"चार लाख कश्मीरी पंडितों की कहानी"... जो आज भी सरकार से झुकी हुई नजरों और सहमी हुई आवाज से एक ही सवाल पुछते हैं! "सरकार हमारा क्या होगा" ?
नसीब सिंह :-->राष्ट्रीय अध्यक्ष/निदेशक
Crime investigation & Anti-Corruption Bureau
"आखिर कब होगी घर वापसी हमारी"?
------------------------------------------------
अगर किसी ने कश्मीर की कहानी सुनी हो तो सबको पता ही होगा की कश्मीर की घाटी कई घटनाओं की गवाह रही है। चाहे हिंदु राजा हरि ङ्क्षसह की ओर से भरत गणराज्य में शामिल होना या फिर कश्मीर के दो टुकड़े होना। लेकीन एक ऐसी भी कहानी है जिसे लोगों ने कम सुना है लेकीन जिनके साथ यह घटना हुई उनपर तो मानो मुसीबतों का पहाड़ ही टुट पड़ा हो।
यह कहानी है उन 4 लाख कश्मीरी पंडितों की वो कहानी जिसे सुनाने वाले का मुंह सिल जाता है। हमारे रोंगटे खडे हो जाते हैं। उन लोगों की रोती हुई आंखें पुछती हैं की कब घर वापसी होगी हमारी। यह घटना है 19 जनवरी 1990 की जब कश्मीर के पंडितों को अपना घर छोडऩे का फरमान जारी हुआ था। कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच तो जंग 1947 से ही जारी है पर कश्मीर में स्थिति इतनी खराब नहीं थी। तमाम कहानियां हैं कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के प्यार की है पर 1980 के बाद माहौल बदलने लगा था।
रूस अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर चुका था। अमेरिका उसे वहां से निकालने की फिराक में था लिहाजा अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा। ये लोग बगैर जान की परवाह किए रूस के सैनिकों को मारना चाहते थे। इसमें सबसे पहले वो लोग शामिल हुए जो अफगानिस्तान की जनता के लिए पहले से ही समस्या थे। क्रूर, वैहशी लोग उठाईगीर और अपराधी इन सबकी ट्रैनिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में होने लगी तो आस-पास के लोगों से इनका संपर्क होना शुरू हुआ। इनसे जुड़े वो लोग जो पहले से ही कश्मीर के लिए समस्या बने हुए थे. क्रूर, वैहशी लोग. उठाईगीर और अपराधी. इन सबको प्रेरणा मिली पाकिस्तान के शासक जनरल जिया से इतने ऊंचे पद पर रहकर वो यही काम कर रहे थे| क्रूरता उनका शासन था। वैहशीपना न्याय. धर्म के उठाईगीर थे।
जिस जगह कश्मीरी पंडित सदियों से रह रहे थे, उनको घर छोडऩे के लिए कहा जाने लगा पहले तो आस-पास के लोगों ने सपोर्ट किया कि नहीं, आपको कहीं नहीं जाना है पर बाद में कुछ तो डर और कुछ अपनी यूनिटी की भावना से कहा जाने लगा कि बेहतर यही होगा कि आप लोग चले जाइए, क्योंकि बसों में ब्लास्ट होने लगे यूं ही गोलियां चलने लगीं ऐसा नहीं था कि सिर्फ पंडित ही मरते थे। मुसलमान भी मरते थे। पर धर्म की आग इतनी तेज थी कि उनके मरने की आवाज को आतंकवादियों ने दबा दिया। हर जगह यही धुन थी कि पंडितों को यहां से बाहर भेज देना है।
ऐसा नहीं था की यह लोग वहां ऐसे ही रहते थे असल में यही लोग असली कश्मीर के हक्कदार थे जिनकी करोड़ों की प्रॉपर्टीयों पर कश्मीरी मुसलमानों ने कब्जा कर लिया। जो कल तक एक राजा की तरह जीवन जीते थे वह एक झटके में घर से वेघर हो गए। इन लोगों में ज्यदातर जम्मू के नजदीक नगरोटा कालोनी में रहने लगे। ओर कुछ देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए।
जुलाई 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना। कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए. कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई। पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया। 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया। हत्यारे पकड़ में नहीं आए। ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी। इसके डेढ़ महीने बाद रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या की गई। गंजू ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। गंजू की पत्नी को किडनैप कर लिया गया। वो कभी नहीं मिलीं. वकील प्रेमनाथ भट को मार दिया गया।
13 फरवरी 1990 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या की गई। ये तो बड़े लोग थे। साधारण लोगों की हत्या की गिनती ही नहीं थी। इसी दौरान जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किये गये थे. क्यों? इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने कभी नहीं दिया। यह जो तमाम घटनांए थी क्या हमारे अधिकारों का हनन नहीं था। कहां का कानून है की किसी भी व्यक्ति को उसके घर से निकाल दिया जाए। उसकी जमीन, घर, और अन्य चीजों पर नजायज कब्जा किया जाए क्या यह सही है।
लेकीन कश्मीर में तो यह संख्या 4 लाख थी जिन्हें अपने ही घर से वेघर कर दिया गया था। यह लोग सरकार से आज भी पुछते हैं जनाब हमारा क्या होगा?
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें